Thursday, May 28, 2009

रे मन !


रे मन इतना चंचल क्यूँ है?

समय का पंछी पंख पसारे,
हरदम आगे उड़ता जाये;
लेकिन तू तो वर्षों पीछे,
मुझको अपने संग ले जाये;
यादों में उलझा-भटका कर,
बेसुध कर वही छोड़ आये.

रे मन इतना व्याकुल क्यूँ है?

तू तो सुख-दु:ख का है वाहक,
फिर दु:ख तुझपे हावी कैसे;
अंबर में बिखरी किरणों को,
ढक लेते है बादल जैसे;
हम तो तुझ पर ही आश्रित हैं,
साँसों पर जीवन है जैसे.

रे मन इतना घायल क्यूँ है?

लगता है तू थक सा गया है,
अंतर्द्वंद से लड़ते-लड़ते;
फिर भी तुझको जीना होगा,
सौ-सौ मौते मरते-मरते;
जीवन बस वही रुक जाता,
जिस क्षण तुम हो उससे बिछड़ते.

- किरण सिन्धु

Monday, May 18, 2009

मेरी सहभागिता


आज   सुबह  जब  मैं  टहलने  गई  थी  तो  सामने  से  अमित   आ  रहा  था  . वह  कभी  मेरे  पड़ोस   में  रहा  करता  था .  आज  सामने  पड़ने   पर  नमस्ते  आंटी  कहकर  आगे  बढ़  गया . उसके  इस  ब्यवहार  पर  मुझे  कुछ  आश्चर्य  भी  हुआ . क्योंकि  वह   बहुत  ही  हँसमुख  लड़का  था . आज  मुझे  वह  बहुत  उदास  दिखा . घर  आने  पर  मेरे  बेटे  ने  बताया  कि  मंदी  के  कारण  उसकी  नौकरी  चली  गयी   है. 

मैं आए दिन यह सुनती हूँ  कि कभी मेरे बच्चों के मित्रो में से किसी की  नौकरी मंदी का शिकार हुई तो कभी उनकी कंपनी से कुछ कर्मचारियों को निकाल  दिया गया . ऐसे लोग एक अजीब सी कुंठा से ग्रस्त  हो जाते हैं,  ऐसा लगता  है कि उनसे कोई पाप हो गया है . पिछले  कुछ महीनो से मंदी की  महामारी ने अनेक घरों का सुख- चैन छीन  लिया है, और इससे सबसे अधिक प्रभावित युवा- पीढी  हुई  है क्योंकि मंदी का शिकार वे कमचारी अधिक है जिन्हें संस्था में काम करते हुए सबसे कम समय हुआ है. इसका दुष्परिणाम तीन  प्रकार से हुआ है.
  • पहला, जिन कर्मचारियों को निकाला जा रहा है, वे अपने परिवार के साथ इस संताप को झेल रहे हैं. किसी को भी इस बात से तात्पर्य  नहीं है कि अब उनके घर का चूल्हा कैसे जलेगा, उनके बच्चों की  या छोटे भाई बहनों की फीस कहाँ से आयेगी या उनके माता-पिता की  दवा के लिए पैसे कहाँ से आएंगे . वे असह्य तनाव  का जीवन जीने को बाध्य  है.
  • दूसरा, जो कर्मचारी अभी कंपनी में कार्यरत हैं वे एक असुरक्षा की  भावना से ग्रस्त हैं. वे इस बात से अशांत  हैं कि कल उनकी नौकरी भी खतरे  में पड़ सकती है. ऐसी  स्थिति में वे  अंतर्द्वंद से जूझते  रहते हैं . 
  • तीसरा, प्रभाव उस युवा वर्ग पर पड़  रहा है जो अब अपनी पढाई पूरी करके नौकरी करने जा रहे हैं.  उनके  भविष्य के सुनहरे सपनों  पर बेरोजगारी के बादल  मंडराते  नजर आ रहे हैं. उनका आत्मविश्वास  उनका साथ छोड़  रहा है. वे हाँ  ना की  स्थिति में है . उन्हें नौकरी मिलेगी या  नहीं और यदि मिलेगी भी तो कितने दिनों के  लिए? 

ऐसी स्थिति मैं इस समाज की  इकाई होने के नाते अपनी आवाज सबसे पहले उन कर्मचारियों तक पहुँचाना चाहती हूँ जो इस मंदी  के कारण  अपनी नौकरी खो चुके हैं. आपकी जिस प्रतिभा के कारण  आपको यह नौकरी मिली थी,  वही प्रतिभा आपके लिए दूसरा द्वार खोलेगी. जीवन-पथ सदा सुगम नहीं होता. हताश होकर कोई भी गलत फैसला न करें. अपने आत्मविश्वाश और धैर्य के साथ दूसरी नौकरी के लिए प्रयास  करें.  हो सकता है कुछ देर हो पर मिलेगी अवश्य. 

मेरी प्रार्थना ऐसे कर्मचारियों के  परिवार के सदस्यों से भी है.  आपके पालन-पोषण, दिशा- निर्देश एवं  सहयोग के कारण ही आपके परिवार का यह सदस्य एक अच्छा सुशिक्षित  नागरिक बन पाया.  आप उसके सबसे बड़े संबल हैं. परन्तु कहीं- कहीं परिवार में ऐसी सोंच होती है जो बिना नौकरी के व्यक्ति को अवहेलना एवं  तिरस्कार का पात्र समझती  है.  कृपया अपनी प्रतिक्रिया को एक नयी दिशा दे . यदि आपके परिवार में मंदी के कारण किसी की नौकरी चली गयी   है तो उसे कुंठाग्रस्त  न होने दे. उसे प्रोत्साहित कर उसके आत्मविश्वाश को बनाये रखे.  आपका प्यार एवं  आश्वाशन  उसे अपनी परिस्थितियों  से लड़ने की  शक्ति  देगा.

मेरा विनम्र  अनुरोध  कम्पनी  के  व्यवस्थापकों   से भी है कि वे कम वेतन पाने  वाले कर्मचारियों को जहाँ तक हो सके बेरोजगार न होने दे . अधिक वेतन पाने वाले कर्मचारी अपने वेतन से बुरे समय के लिए कुछ न कुछ बचत कर सकते हैं परन्तु कम वेतन पाने वाले कर्मचारी बहुत कठिनाई से अपना और अपने परिवार का भरण - पोषण कर पाते  हैं. उदाहरण के लिए यदि किसी कर्मचारी का मासिक वेतन दो लाख रुपये है तो कुछ महीनो के लिए उसे पंद्रह हज़ार रुपये कम भी मिले तो शायद बहुत फर्क नहीं पड़ेगा,  परन्तु जो व्यक्ति दस से पंद्रह हज़ार रुपये  मासिक वेतन पा  रहा है, उसकी नौकरी चली जाती है तो यह अत्यंत दुखद:  है. पंद्रह हज़ार मासिक वेतन पाने वाले चार कर्मचारियों को निकालने के  बदले दो लाख वेतन पाने वाले चार कर्मचारियों के वेतन से कुछ दिनों के लिए पंद्रह हज़ार रुपये कम  किया जा सकता है. 

Monday, May 11, 2009

माँ


"मातृ
दिवस" के अवसर पर मेरी प्रकाशित कवितायेँ:

आपकी प्रतिक्रिया में आशान्वित...

- किरण सिन्धु

Monday, May 4, 2009

सजा बिना अपराध की




अगर साँसे दिखाई देती तो एहसास भी दिखते,
वक्त को थाम पाते तो इतिहास भी दिखते।
- किरण सिन्धु

यह तो सभी जानते है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक की अवधि जीवन है, परन्तु मेरे दृष्टिकोण में मनुष्य जीवन को हर क्षण में जीता है और उसके बीत जाने के बाद उसे समझता है. अपने जीवन के प्रारंभ में ही या यों कहें कि अपनी बाल्यावस्था में ही मैंने अपनी माँ को खो दिया था. एक अबोध शिशु के लिए माँ क्या होती है उसे आज तक कोई लेखनी व्यक्त नहीं कर पाई. मुझे अभी भी याद है बाबूजी ने कहा ''माँ अस्पताल गयी है'', दादी ने कहा ''माँ भगवान् के पास गयी है '' और दीदी ने कहा कि माँ तारा बन गयी है. इन सभी बातों का मेरे लिए एक ही अर्थ था कि माँ नहीं है और नहीं है तो फिर कब आएगी? कुछ ही दिनों में आभास हो गया कि ये सारे प्रश्न निरुत्तर थे. उम्र की पगडंडी पर चलते-चलते एक समय ऐसा भी आया जब मैं स्वयं माँ बनी. इश्वर ने मुझे संतान के रूप में तीन अमूल्य रत्न दिए -एक प्यारी सी बेटी और दो बेटे. अपनी भरपूर ममता और सरंक्षण में मैं इन्हें पालने में लग गयी. मेरे बच्चों ने मुझे इस विश्व की सबसे अधिक सौभाग्यशालिनी माँ बना दिया, ऐसा मेरा सोचना था. मैं सदा उपरवाले से यही दुआ माँगती कि हर जन्म में मैं इन्ही बच्चों की माँ बनूँ. लेकिन हाय विधाता! एक दिन इस माँ को फिर से नियति की विडम्बना को झेलना था. मेरा बेटा किसलय सदा के लिए हम तीनो को छोड़ कर चला गया. ऐसा लगता है मेरे शारीर के साथ-साथ मेरी आत्मा का भी एक हिस्सा कट कर अलग हो गया है. मेरे जीवन में उसका नहीं होना एक क्रूर सजा की तरह है जो मेरी सहनशक्ति के बाहर है. एक शिशु तो अपनी माँ के बिना जी गया लेकिन एक माँ अपने शिशु के बिना कैसे जिए? हे इश्वर किसी माँ को ऐसी सजा मत देना! पर ऐसा लगता है जीवन और मृत्यु के इश्वर अलग अलग है, क्यूंकि इश्वर स्वयं जिनके सारथी थे उस अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की मृत्यु भी युवावस्था में ही हुई थी और श्री राम स्वयं इश्वर होते हुए भी अपने पिता की मृत्यु को रोक नहीं सके थे।