Monday, April 27, 2009
गोधूलि किरण
चलते चलते आकर ठहर गयी
अपने ही चौखट पर गोधूलि किरण;
गुमसुम सी मन ही मन में कर रही
घड़ी-घड़ी, पहर-पहर का मूल्याँकन.
भोर की बेला बड़ी सुहानी थी
मैं भी थी कोमल-कोमल शीतल-शीतल;
ओस की बूंदों के संग अठखेलियाँ
थिरकती थी हवा के संग बिन पायल.
दोपहर में जब प्रचंड भास्कर
तपा रहा था सारे विश्व को;
मैं भी बन कर तब अग्निशिखा
बचा रही थी स्वयं के अस्तित्व को.
यह तो सब विधि के हाथ है
किसे कितनी प्रभा और कितना तम्;
कर लिया स्वीकार दोनों अंश को
गोधूलि है प्रकाश-तिमिर का संगम.
- किरण सिन्धु
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