सुन रे पखेरू!
मत कर कातर कंठ पपीहे;
कोई नहीं सुनने वाला,
क्यूँ चकोर तू चाँद को देखे?
वो तुझे नहीं मिलने वाला.
जिस डाल पर कोयल कूके;
कब कट जाय पता नहीं,
कहीं नीड़ सब उजड़ रहे हैं,
कहीं वाशिंदे पता नहीं.
" माता कुमाता न भवति" तो;
फिर बच्चे को फेंका क्यूँ?
जनक कहाते रक्षक वंश के,
फिर जायों की ह्त्या क्यूँ?
कहीं दुश्मनी, कहीं हवस है;
कहीं गोत्र और कहीं षड्यंत्र,
ह्त्या इनकी परिणति है,
कभी अकस्मात्, कभी योजनाबद्ध.
सबकुछ बदल रहा है जग में,
ना जाने अब कल क्या हो?
खोज पखेरू दूसरी दुनिया,
जिसमें कोई नयी बगिया हो.
---किरण सिन्धु.