Sunday, August 16, 2009

निर्वाह


निर्वाह

नहीं आती मंजिल चल कर कर कभी भी;
कदम तुझी को बढाना पडेगा,

जिस रथ की सवारी की है जगत ने ;
समय उसका स्वयं सारथी है,
पलट कर कभी भी ना देखा है उसने;
बड़ा ही प्रबल है,बड़ा महारथी है.

प्रतीक्षा नहीं वह करता किसी का,
तुझे उसके संग आगे जाना पडेगा,

किसी से सहारे की उम्मीद न करना;
सहारे हमें बेबस, लाचार करते,
टूट कर बिखर जाता आत्मबल हमारा,
अगर अपनी शक्ति को अस्वीकार करते.

कठिन है मगर असंभव नहीं है,
अपने बोझ को खुद उठाना पडेगा.

अगर कोई अपना बिछड़ जाए तुझसे
यादों को उसकी धरोहर समझना,
ह्रदय की तिजोरी में संचित कर के,
हर क्षण उसे अपने पास रखना.

जाकर कभी कोई वापस ना आता,
बिना उसके तुझको संभलना पडेगा.

आँखों से आँसू छलकने लगे तो;
अपनी हथेलियों को नम कर लेना,
रुदन सिसकियों में बदलने लगे तो,
होठों के अन्दर दफ़न कर देना.

नहीं समझेगा कोई तेरी हालत,
तुझे ही अपने को समझाना पडेगा.

--किरण सिन्धु

एक नयी उपलब्धि: मेरी कविता "नारी तेरे रूप अनेक" को काव्यांजलि ने प्रथम पुरस्कार से समान्नित किया है। http://www.kaavyanjali.com/PrevContest1.htm
काव्यांजलि पत्रिका को मेरा हार्दिक धन्यवाद्! आप मेरी पुरस्कृत कविता यहाँ पढ़ सकते है: http://www.kaavyanjali.com/Naarii-ks.htm