Monday, September 19, 2011

अनिकेत - निकेतन

रोक लिया अपने अश्रु की धार को;
अनुभव किया जब नियति के प्रहार को,
एक सी करुणा थी उनकी आँखों में,
एक सा था भाव उनके चेहरे पर,
मातृ - पितृ विहीन है जीवन जिनका;
देखा मैने उन मासूमों के संसार को.
व्यक्त है जिनकी खुशी, अव्यक्त दुख;
स्वप्न की सीमाएँ व्याकुल विस्तार को,
धर्म, जाति, क्षेत्र की बाध्यता नहीं;
सौहार्द की भाषा स्वीकृत इस परिवार को.


19 सितम्बर को मेरे दिवंगत बेटे किशु (किसलय ) का जन्मदिन है. उसके जाने के बाद यह उसका तीसरा जन्मदिन है. आज के दिन मेरी बेटी कनुप्रिया अनाथाश्रम जाकार वहाँ के बच्चों से केक कटवाती है और उन्हें फल, मिठाई और उपहार देती है. इस दिन अनाथाश्रम के बच्चों का एक समय का खाना मेरे बच्चों की तरफ से होता है, जिन्मे वे स्वयं भी शामिल होते हैं. इस साल 19 सितम्बर को सोमवार है, "संतोष चैरिटी होम" के बच्चों का स्कूल खुला है, अतः 18 सितम्बर, रविवार की सन्ध्या को ही इस कार्यक्रम को आयोजित किया गया. पहली बार मैं भी अपने बच्चों के साथ "चैरिटी-होम" गई. वहाँ के बच्चों से मिल कर मेरे अन्दर एक नई चेतना का संचार हुआ. एक ऐसी प्रतिक्रिया, जिसने मुझे बहुत कुछ सोंचाने पर मजबूर कर दिया. कहीं भी उनका दुःख मेरे दुःख से कम ना था. मैने अपना पुत्र खोया था, उनलोगों ने अपना जनक, पालक और संरक्षक - सबकुछ. बच्चे अलग-अलग उमर के थे, अतः अपनी उँचाई के अनुसार जमीन पर ही बैठे थे. उनलोगों ने एक स्वर में हमारा अभिवादन किया. वाद्य-यंत्रों के साथ मधुर संगीत की प्रस्तुति से इस आयोजन की गरिमा बढाई. मैं अवाक् थी उनके अनुशासन को देख कर. संगीत-कला, चित्र-कला के साथ-साथ उन्हें अन्य रचनात्मक कार्यों मे भी दक्षता हासिल थी. काश! मेरा किशु अपने जन्मदिन मे उपस्थित होता.

आज 19 सितम्बर को मैं पुनः एक कमजोर,विह्वल माँ बन गई हूँ. हर थोड़ी देर पर अपने किशु को याद कर के आँखें भर आती हैं. जन्म से लेकर उसके जाने तक की अनेक यादों ने आकर मुझे घेर लिया है. ना जाने मुझे क्या हो गया है……

मैया, तू कितनी भोली रे!
तू भोली, तेरी ममता भोली,
अपने बच्चों की हमजोली रे.
कातर होकर मैया बोली...
ज्ञान की बातें मैं क्या जानूँ?
वेद, उपनिषद मैं क्यों बाँचू?
मेरा जीवन मेरे बच्चों से है,
सिवा उनके मैं कुछ ना सोंचू.
हे ईश्वर! कुछ देना है तो,
मेरे बच्चों की रक्षा करना
फूले-फले और स्वस्थ रहे वो,
वृद्धावस्था तक दिर्घायु रखना.

- किरण सिन्धु.

Monday, July 18, 2011

माटी का लाल!

मैया ने तुझे जन्म दिया तो क्या हुआ;
प्रकृति माँ तेरा जतन करेगी,
जिस पेड की डाल से तेरा झूला टंगा है;
उसके पत्तों से छनती धूप तुझे सेंका करेगी,
कोमल शीतल बयार तुझे सहलाया करेगी;
थपथपा कर तुझे सुलाया करेगी,
उँची अत्तालिकाएं तब तक बनेंगीं;
जब तक तेरे पिता के हाथों कुदाल है,
माटी ढोती मजदूरनी का बेटा है तू,
सही परिचय तेरा " माटी का लाल " है.
-- किरण सिन्धु.

आजकल महानगरों के सम्भ्रान्त समाज में "रियल- स्टेट ", "प्रोपर्टी - डीलर", " बिल्डर" आदि शब्द बहुप्रचलित हैं. कहीं कोई अपार्टमेन्ट बन रहा है तो कहीं किसी का भब्य निजि आवास. इन सबके निर्माण में जिन हाथों का सक्रिय योगदान है, वे हाथ उन मजदूरों के हैं जो आजीवन मजदूरी करने के बाद भी अपने लिए एक स्थायी आवास नहीं बना पाते. किसी एक भवन निर्माण का काम समाप्त होते ही अपने परिवार के साथ नये काम और नये आशियाने की तलाश में निकल पड़ते हैं.
मैं जिस घर में रह्ती हूँ, उसके ठीक सामने एक इमारत बनाई जा रही है. सुबह आठ बजते-बजते मजदूर पुरुष - महिलाएँ काम पर आ जाते हैं. अभी खुदाई का काम चल रहा है .पुरुष कुदाल से मिट्टी खोदते हैं जिसे महिलाएँ टोकरे में भर कर एक - दूसरे की सहायता से सिर पर रख कर बाहर की तरफ ले जाती हैं. अपनी बल्कनी में बैठे - बैठे मैं इन्की गतिविधियों को देखती रह्ती हूँ. जीविका की आपाधापी में ये मजदूर अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं का या यों कहें इच्छाओं का किस तरह गला घोंटते है इसे शब्दों में वर्णित करना असम्भव है. सामने के पेड के नीचे एक मजदूर अपने परिवार के साथ पहुँच गया है. अभी सुबह के सात बजे हैं. उसके दो बच्चे हैं जिनके हाथों मे एक - एक थैला है जिसे वे बहुत ही कठिनाइ से लाए होंगे. पेड की डाली से एक साडी लटक रही है, जिसमें कोई गठरीनुमा वस्तु रखी गई है. मैं मन ही मन सोंचती हूँ, शायद खाने का सामान है जिसे वे जमीन पर नहीं रखना चाहते होंगे. मजदूर - दम्पति काम पर चले जाते हैं और उनके दोनो बच्चे उसी पेड के नीचे अपनी धरोहर के रक्षक बन कर तैनात हैं. बच्चों में बेटी बडी है, जो थोडी - थोडी देर के अन्तराल पर हल्के से उस गठरीनुमा वस्तु को हिला देती है. करीब नौ बजे वह अम्मा - अम्मा कह्ती हुई अपनी माँ को पुकारती है और साथ में उस गठरी की तरफ संकेत भी करती है. मजदूरनी माँ आकर झोले से एक प्लास्टिक की बोतल निकालती है जिसमें पानी भरा है. अपने दोनों हाथों को धोने के बाद वह गठरी की तरफ बढ़ी. मुझे लगा शायद बच्ची को भूख लगी है अतः खाने के लिए कुछ माँग रही है. लेकिन मैं गलत थी. मजदूरनी ने पेड से लटकी साडी से बने झूले में से एक नन्हे से शिशु को निकाला और वहीं पेड के तने से लग कर बैठ गई और उसे दूध पिलाने लगी. शिशु की उम्र लगभग दो महीने होगी. मैया ने तेल लगा कर उसकी अच्छी मालिश की थी. इतनी दूर से भी शिशु का नन्हा सा चेहरा चमक रहा था.मुश्किल से पन्द्रह- बीस मिनट बीते होंगे, सुपर्वाइजर चिल्ला कर उसे वापस काम पर बुलाने लगा. मजदूरनी ने पुनः शिशु को उस तथाकथित झूले में सुला दिया और काम पर लौट गई. बच्चा अभी भी सोया नहीं था क्योंकि उसकी कुन्मुनाहट की हल्की- हल्की हरकत बाहर से भी देखी जा सकती थी. मजदूरनी की बेटी हल्के हाथों से झूले को हिलाने लगी. मैं अपनी बाल्कोनी की रेलिंग पर अपने दोनों हथों को टिकाए यही सोंचती हूँ..... क्या जाने उस बच्चे का पेट भरा भी या नहीं?

Thursday, May 5, 2011

कही खो ना जाएँ...


यंत्रों की भारी भीड़ में;
भाव सभी कहीं खो गए,
सम्बन्ध ह्रदय का नहीं रहा;
रिश्ते निःशब्द हो गए,
पैरों की गति तीव्र हुई;
कंठ और स्वर हुए मौन,
तन की थकान, मन की थकान;
आँखों की भाषा पढ़े कौन?
तू है पुरानी संगिनी;
मेरी कलम मुझे थाम ले,
घुटकर न रह जाए अनकही;
मेरे अपनों को पैगाम दे.

आजकल हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जहाँ जीवन सिमटता जा रहा है. जीवन से मेरा तात्पर्य ह्रदय के उस स्पंदन से है जो संबंधों का जीवंत माध्यम है. परिवार के अनेक सदस्य एक छत के नीचे रहते तो हैं परन्तु वो संवेदना लुप्त होती जा रही है, जो आज से पचीस - तीस वर्ष पहले हुआ करती थी. भाग्यवान हैं वो वृद्ध माता - पिता जिनकी संतान उन्हें अपने साथ रखती है, काम पर से वापस आने के बाद उनके पास कुछ देर बैठ कर दो शब्द बातें कर लेती हैं. महानगरों में बच्चों की स्थिति और भी दयनीय है. जिन बच्चों के माता - पिता दोनों काम पर जाते हैं वहाँ अक्सर ऐसा हो रहा है कि बच्चों से माता - की सही माने में मुलाक़ात सिर्फ छुट्टियों के दिन ही हो पाती है क्योंकि बच्चों को उनकी परिचारिकाएँ देखती हैं. काश हम अपनी भागती हुई ज़िंदगी में अपने परिवार को भी एक संवेदनापूर्ण अहमियत दे पाते. आज जो बच्चे हैं वो कल बड़े होंगें और आज जो युवा हैं वो कल वृद्ध होंगें. कहीं अनजाने में ज़िंदगी हाथ से ना निकलती चली जाए.
- किरण सिन्धु .

Saturday, January 1, 2011

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

समय के रथ को थोड़ा और आगे बढ़ते ही इस विश्व से हमारा रिश्ता कुछ और पुराना हो गया. असंख्य आकांक्षाओं और अपेक्षायों को पूरा करने के लिए एक नूतन वर्ष और आ गया और मेरी हार्दिक शुभकामना है की मेरे सभी प्रियजनों को इस नव वर्ष में -

सुख की धूप, चैन की छाव,
कार्य में प्रगति, रिश्तों में ठहराव;

आशाओं से भरी सुबह, ओस से भरे दिन,
शीतल सुगन्धित सांझ, रातों में गहरी नींद;

तनाव से मुक्ति, नवचेतना का संचार;
प्रभु की कृपा, बड़ों का आशीर्वाद;

और
......झोली भर भर खुशियाँ प्राप्त हो!

नव वर्ष मंगलमय हो!

- किरण सिन्धु

Sunday, September 19, 2010

हैप्पी बर्थडे टू किशु!

विधि की यह कैसी विडंबना है कि जिस दिन को हम महोत्सव की तरह मनाते थे वह दिन अब एक दर्द बन कर रह गया है.मेरे बेटे किसलय, जिसे हम प्यार से किशु कहते थे का जन्म 19 सितम्बर को हुआ था. आज उसकी याद के सिवा हमारे पास कुछ भी नहीं है, फिर भी हमारे ह्रदय से उसके लिए दुआएँ निकलती हैं.परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि वह हमारे किशु को पुनः हमारे ही घर में भेजे.

हैप्पी बर्थडे टू किशु!


फिर उन्नीस सितम्बर आया किशु,
हैप्पी बर्थडे टू यू

दीदी अनाथाश्रम जायेगी;
बच्चों से केक कटवाएगी,
वे खुश होकर गाना गायेंगे,
तुम्हारा जन्मदिन मनाएंगे.
तुम कितनों में बाँट गए किशु,
हैप्पी बर्थडे टू यू.

तुम्हारे जन्म के संग - संग;
कितनी खुशियाँ घर आयी थीं,
लोगों ने दी खूब बधाई थी,
दादी ने बाँटी मिठाई थी.
आज सबकुछ याद आ रहा किशु,
हैप्पी बर्थडे टू यू.

उस समय कहाँ था ज्ञात हमें;
इन खुशियों की लम्बी उम्र नहीं,
बीते पलों को याद कर के,
हम सबको आता सब्र नहीं.
तुम जाकर भी नहीं गए किशु
हैप्पी बर्थडे टू यू.
- मम्मा.

Thursday, July 22, 2010

सुन रे पखेरू!



सुन रे पखेरू!

मत कर कातर कंठ पपीहे;
कोई नहीं सुनने वाला,
क्यूँ चकोर तू चाँद को देखे?
वो तुझे नहीं मिलने वाला.

जिस डाल पर कोयल कूके;
कब कट जाय पता नहीं,
कहीं नीड़ सब उजड़ रहे हैं,
कहीं वाशिंदे पता नहीं.

" माता कुमाता न भवति" तो;
फिर बच्चे को फेंका क्यूँ?
जनक कहाते रक्षक वंश के,
फिर जायों की ह्त्या क्यूँ?

कहीं दुश्मनी, कहीं हवस है;
कहीं गोत्र और कहीं षड्यंत्र,
ह्त्या इनकी परिणति है,
कभी अकस्मात्, कभी योजनाबद्ध.

सबकुछ बदल रहा है जग में,
ना जाने अब कल क्या हो?
खोज पखेरू दूसरी दुनिया,
जिसमें कोई नयी बगिया हो.
---किरण सिन्धु.

Tuesday, June 22, 2010

हम कहाँ जा रहे हैं...?

विश्वास की छाती को;
रौंद रहे गद्दारी के पाँव,
सिसक रही है मानवता,
थक चुकी है सभ्यता,
रक्षक ही बन चुके हैं भक्षक;
शासन और शोषण में,
सिर्फ शब्दों और मात्राओं का अंतर है,
और ऊपर से प्रकृति का कहर,
वैसे भी मृत्यु तो बहाना खोजती है,
हादसे तो उसके माध्यम हैं,
कभी आकाश में, कभी धरती पर,
कभी अग्नि, कभी जल,
कभी दीवार ढह जाती है और,
कभी रेल की पटरियाँ उखड़ जाती हैं,
और कुछ नहीं तो जनक ही,
अपनी उन संतानों की ह्त्या कर देता है,
जो अपने पिता को घर जैसे,
सुरक्षित किले का प्रहरी मानते हैं.
आने वाला समय ना जाने,
कौन सा प्रलय लाने वाला है!!!
जो कुछ हमारे वश में नहीं,
वहाँ तो हम बाध्य हैं, लेकिन जहाँ हम,
योजनाबद्ध होकर षड़यंत्र रचते हैं,
निर्दोष मासूमों की जान लेते हैं,
किसी को मृत्यु और किसी को,
मृत्यु से भी बदतर जीवन देते हैं,
क्या हम हिंसक पशु बन चुके हैं?
नहीं, पशु तो हिंसा असुरक्षा की भावनावश,
या अपनी भूख मिटाने की खातिर करते हैं,
लेकिन हम???
ना जाने हम कहाँ जा रहे हैं?
-किरण सिन्धु