Thursday, May 5, 2011

कही खो ना जाएँ...


यंत्रों की भारी भीड़ में;
भाव सभी कहीं खो गए,
सम्बन्ध ह्रदय का नहीं रहा;
रिश्ते निःशब्द हो गए,
पैरों की गति तीव्र हुई;
कंठ और स्वर हुए मौन,
तन की थकान, मन की थकान;
आँखों की भाषा पढ़े कौन?
तू है पुरानी संगिनी;
मेरी कलम मुझे थाम ले,
घुटकर न रह जाए अनकही;
मेरे अपनों को पैगाम दे.

आजकल हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जहाँ जीवन सिमटता जा रहा है. जीवन से मेरा तात्पर्य ह्रदय के उस स्पंदन से है जो संबंधों का जीवंत माध्यम है. परिवार के अनेक सदस्य एक छत के नीचे रहते तो हैं परन्तु वो संवेदना लुप्त होती जा रही है, जो आज से पचीस - तीस वर्ष पहले हुआ करती थी. भाग्यवान हैं वो वृद्ध माता - पिता जिनकी संतान उन्हें अपने साथ रखती है, काम पर से वापस आने के बाद उनके पास कुछ देर बैठ कर दो शब्द बातें कर लेती हैं. महानगरों में बच्चों की स्थिति और भी दयनीय है. जिन बच्चों के माता - पिता दोनों काम पर जाते हैं वहाँ अक्सर ऐसा हो रहा है कि बच्चों से माता - की सही माने में मुलाक़ात सिर्फ छुट्टियों के दिन ही हो पाती है क्योंकि बच्चों को उनकी परिचारिकाएँ देखती हैं. काश हम अपनी भागती हुई ज़िंदगी में अपने परिवार को भी एक संवेदनापूर्ण अहमियत दे पाते. आज जो बच्चे हैं वो कल बड़े होंगें और आज जो युवा हैं वो कल वृद्ध होंगें. कहीं अनजाने में ज़िंदगी हाथ से ना निकलती चली जाए.
- किरण सिन्धु .

1 comment:

Unknown said...

तू है पुरानी संगिनी;
मेरी कलम मुझे थाम ले,
घुटकर न रह जाए अनकही;
मेरे अपनों को पैगाम दे.

waah...........kya khoob kaha

nice post !