विश्वास की छाती को;
रौंद रहे गद्दारी के पाँव,
सिसक रही है मानवता,
थक चुकी है सभ्यता,
रक्षक ही बन चुके हैं भक्षक;
शासन और शोषण में,
सिर्फ शब्दों और मात्राओं का अंतर है,
और ऊपर से प्रकृति का कहर,
वैसे भी मृत्यु तो बहाना खोजती है,
हादसे तो उसके माध्यम हैं,
कभी आकाश में, कभी धरती पर,
कभी अग्नि, कभी जल,
कभी दीवार ढह जाती है और,
कभी रेल की पटरियाँ उखड़ जाती हैं,
और कुछ नहीं तो जनक ही,
अपनी उन संतानों की ह्त्या कर देता है,
जो अपने पिता को घर जैसे,
सुरक्षित किले का प्रहरी मानते हैं.
आने वाला समय ना जाने,
कौन सा प्रलय लाने वाला है!!!
जो कुछ हमारे वश में नहीं,
वहाँ तो हम बाध्य हैं, लेकिन जहाँ हम,
योजनाबद्ध होकर षड़यंत्र रचते हैं,
निर्दोष मासूमों की जान लेते हैं,
किसी को मृत्यु और किसी को,
मृत्यु से भी बदतर जीवन देते हैं,
क्या हम हिंसक पशु बन चुके हैं?
नहीं, पशु तो हिंसा असुरक्षा की भावनावश,
या अपनी भूख मिटाने की खातिर करते हैं,
लेकिन हम???
ना जाने हम कहाँ जा रहे हैं?
-किरण सिन्धु
2 comments:
Bahut achchi rachna
a nice and realistic observation of Todays social system.
Really,A Homo sapians (Human) is the wildest animal now a days.
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