Saturday, September 5, 2009

दुकान


अणिमा ने दीवाल घड़ी पर नजर डाली और "आज फिर देर से आये ....." कहते हुए सामने खड़े सुजय को देखा जो पूरी तरह से पसीने में भीगे हुए थे.अपने दाहिने हाथ से सीने को दबाए जोर - जोर से हाँफ रहे थे और कुछ कहने की कोशिश कर रहे थे.शब्द जब होठों तक आकर रुकने लगे तो उन्हों ने इशारे से पानी माँगा. सुजय की दयनीय स्थिति देख कर अणिमा का क्रोध कुछ देर के लिए लुप्त हो गया. उन्हों ने कुर्सी की तरफ संकेत कर के सुजय को बैठने के लिए कहा और टेबल पर रखी हुई घंटी को हाथ से दबाया. चपरासी के अन्दर आते ही उन्हों ने शीघ्र ही एक ग्लास पानी लाने को कहा. साइड - टेबल पर पड़े हुए तौलिये को सुजय की तरफ बढाते हुए कहा-
"पहले अपने चेहरे से पसीना पोंछिये."
तब तक चपरासी पानी से भरा ग्लास लेकर आ चुका था. सुजय ने एक ही घूँट में ग्लास खाली कर दिया और बड़े ही कातर दृष्टि से और एक ग्लास पानी की माँग की.चपरासी ग्लास लेकर ऑफिस से बाहर चला गया.अब सुजय कुछ कहने की स्थिति में आ गए थे.संक्षेप में उन्हों ने इतना ही बताया कि पिछले कई दिनों से साइकिल चलाते वक्त उनके सीने में दर्द होने लगता है और वे बहुत ही जल्दी हाँफने लगते हैं. हर पांच मिनट के बाद उन्हें साइकिल से उतर कर अपनी साँस को नियंत्रित करना पड़ता है.
अणिमा एक उच्च विद्यालय की प्रधानाधापिका थी. यह एक निजी विद्यालय था लेकिन इसे केन्द्रीय बोर्ड से मान्यता प्राप्त थी.सुजय इस विद्यालय में गणित के अध्यापक थे और नौवीं - दसवीं कक्षा को पढाते थे.ऍम.एस.सी तक की परीक्षा उन्हों ने प्रथम श्रेणी में ही पास की थी. विद्यालय के सुयोग्य शिक्षकों में गिने जाने वाले सुजय अनुशासनप्रिय ,परिश्रमी और व्यवहारकुशल व्यक्ति थे.
अणिमा को इस समय उन्हें इतना निरीह देख कर बहुत दया आ रही थी.कुछ क्षण बाद उन्हों ने सुजय से पूछा -----
"किसी डॉक्टर से दिखवाया"?
" नहीं, दो -चार दिनों में दिखा लूँगा."
अणिमा को समझते देर ना लगी कि पैसे की कमी के कारण सुजय स्वयं को किसी डॉक्टर से नहीं दिखा रहे हैं और "दो - चार" दिन का अर्थ है,वे वेतन मिलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. सुजय के परिवार की आर्थिक स्थिति साधारण थी. उनके वृद्ध पिता किसान थे. बड़े भाई फौज में थे जो देश की रक्षा हेतु शहीद हो चुके थे. विधवा भाभी माँ पिताजी के साथ गाँव में ही रहती थी परन्तु अपने दिवंगत भाई के दोनों बच्चों को सुजय अपने साथ रख के पढ़ा रहे थे.सुजय का विवाह तीन वर्ष पूर्व हुआ था और एक चार महीने की बेटी थी. ऐसे तो किसी तरह घर का खर्च पूरा हो जाता था लेकिन महीने के अंतिम सप्ताह में इलाज के लिए वे सोंच भी नहीं सकते थे. अणिमा मन ही मन सोंचने लगी और बहुत संभाल कर कहा --
" इसे अन्यथा नहीं लीजियेगा, यदि इलाज के लिए पैसे की जरुरत है तो बोलिए "
सुजय ने बिना कुछ कहे आँखे झुका ली. प्रधानाध्यापिका की कुर्सी ने पिछले बीस सालों में" मौन भाषा " को भी पढ़ना सीखा दिया था.अपने पर्स में से दो हजार रूपये निकाल कर सुजय की तरफ बढ़ाती हुई बोलीं --
"डॉ.हरीश वर्मा से मेरा पारिवारिक सम्बन्ध है.वे एक अच्छे फिजिशयन हैं और ह्रदय - रोग विशेषग्य भी, मैं उन्हें फोन कर देती हूँ ,वे आपको अच्छी तरह देख भी लेंगे और हर तरह की जांच भी वहीं हो जायगी. इतना कह कर अणिमा डॉ.हरीश वर्मा को फोन लगाने लगीं. डॉ. हरीश से बात होने के बाद उन्हों ने सुजय से कहा --
" आप साइकिल यहीं छोड़ दीजिये और रिक्शा पकड़ कर डॉ.वर्मा के क्लीनिक चले जाइए,डॉक्टर साहब अभी क्लीनिक में ही है."
सुजय की आँखों में कृतज्ञता के भाव स्पष्ट देखे जा सकते थे.वह आभार प्रकट करते हुए उठ खड़ा हुआ.अणिमा ने पुनः कहा --
"यदि कोई समस्या हो तो वहीं से फोन करे."
सुजय के जाने के बाद अणिमा कुछ चिंतित सी हो उठीं.एक अज्ञात आशंका ने मन को घेर लिया---कहीं सुजय को किसी प्रकार का गंभीर ह्रदय- रोग तो नहीं ---- वैसे भी वे अपने विद्यालय के सभी कर्मचारियों के प्रति बहुत स्नेह रखती थीं.सुजय के बारे में भी उनकी चिंता स्वाभाविक थी क्यों कि वे अच्छी तरह जानती थीं कि निजी विद्यालय के शिक्षक के लिए किसी बड़ी बिमारी का इलाज देश के बड़े अस्पतालों में जाकर कराना मुश्किल ही नहीं असंभव है.
शाम को डॉ.वर्मा का फोन आया तो वे और भी व्यग्र हो उठीं .उन्हों ने बताया कि सुजय के ह्रदय के वाल्व में खराबी है जो सिर्फ ऑपरेशन से ही ठीक हो सकता है. सावधानी के लिए उन्हों ने यह भी कहा कि जब तक ऑपरेशन नहीं हो जाता तब तक सुजय साइकिल नहीं चलाये.
अगले दिन जब वह विद्यालय पहुँची तो सुजय अपने सारे रिपोर्ट के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. बहुत उदास थे. अणिमा ने उन्हें बैठने के लिए कहा.सहानुभूति भरे शब्द सुनते ही उनकी आँखों में आँसू आ गए. अणिमा ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा -
" घबराने से कुछ नहीं होता है, किसी भी तरह ऑपरेशन के लिए सोंचना होगा क्योंकि अभी बिमारी की शुरुआत है". उन्हों ने पुनः कहा कि वे डॉ.वर्मा से एम्स में ऑपरेशन के अनुमानित खर्च के बारे में बात करेंगी.
सुजय ने सहमते हुए अपना त्यागपत्र बढाया. अणिमा ने समझाते हुए कहा --
" अभी आप छुट्टी के लिए आवेदन दीजिये और अग्रिम वेतन लेकर दिल्ली चले जाइए.दिल्ली में एम्स के डॉक्टर क्या कहते हैं उसी के अनुसार आगे के बारे में सोंचियेगा."
अगले दिन सुजय अपने साले के साथ दिल्ली चले गए.एक सप्ताह बाद उनका फोन आया कि एम्स के डॉक्टर यथाशीघ्र ऑपरेशन के लिए कह रहे हैं अतः विद्यालय उनकी जगह किसी दूसरे शिक्षक की नियुक्ति कर ले. अणिमा को एक होनहार शिक्षक के चले जाने का अत्यंत दुःख था परन्तु वह जानती थी कि विद्यालय - समिति सुजय के इलाज के लिए किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं देगी.

सुजय को विद्यालय छोड़े करीब दस महीने बीत चुके थे. दुर्गा - पूजा के अवसर पर शहर में बहुत चहल - पहल थी.अणिमा नियमतः अष्टमी और नवमी के दिन देवी - मंदिर जाती थी.आज भी वह मंदिर में पूजा कर के जैसे ही वापस आयी कोई "प्रणाम मैडम" कहते हुए उनके पैरों पर झुक गया.
"खुश रहिये " कहते हुए उन्होंने झुके हुए युवक को उठाया. अणिमा को आर्श्चय के साथ - साथ ख़ुशी भी हुई. सामने मुस्कुराते हुए सुजय खड़े थे.
"अरे आप ---सुजय जी कैसे हैं?"
" आपके आर्शीवाद से बिलकुल ठीक हूँ, आपने तो मुझे नया जीवन दिया है."
"ऑपरेशन ठीक से हो गया ? कोई परेशानी तो नहीं है?"
"नहीं मैडम, कोई परेशानी नहीं है " पुनः बड़े आग्रह से कहा -
"आइये न मैडम, यहाँ मेरी एक छोटी सी दुकान है."
"दुकान ?????" कहती हुई अणिमा सुजय के साथ चल पडी.
दोनों एक खिलौने की दुकान पर पहुँचे. अणिमा ने देखा एक बहुत ही सुन्दर युवती दुकान में खड़े लगभग एक दर्जन बाल ग्राहकों को संभाल रही थी. यह सुजय की पत्नी थी सुजय ने जैसे ही का परिचय कराया वह चरण - स्पर्श करने के लिए झुक गयी. दोनों ने बड़े सम्मान से अणिमा को बिठाया. अणिमा के बिना पूछे ही सुजय ने बताया कि उस समय ऑपरेशन का खर्च उनकी भाभी ने दिया.भैया की मृत्यु के बाद जो पैसे सरकार से मिले थे, बिना माँगे ही भाभी ने उसके अकाउंट में डाल दिए थे यह कहते हुए कि" आपसे तो हम सबका भविष्य जुड़ा हुआ है".अपनी बात जारी रखते हुए सुजय ने कहा कि उन्हीं पैसों को वापस भाभी के अकाउंट में रखने के लिए उन्हों ने एक खिलौने की दुकान खोल ली है जिसमे खिलौनों के साथ - साथ पेन, पेंसिलऔर पढ़ने - लिखने से सम्बंधित और भी चीजें बिकती हैं.दूकान के आस - पास कई छोटे -बड़े विद्यालय है, इस लिए सामानों की विक्री भी सहज ही हो जाती है.जब वे घर पर ट्यूशन पढाते हैं तो उनकी पत्नी दुकान संभालती है.अणिमा जब वहाँ से चलने लगी तो सुजय ने एक लिफाफे में दो हजार रूपये रख कर उनकी तरफ बढाए.अणिमा ने पैसे वापस करते हुए कहा -
"अपनी भाभी के सहयोग की तरह इसे माँ का आर्शीवाद समझ कर रख लीजिये "

जब जीवन की रक्षा का प्रश्न उठता है तो सारे नैतिक मूल्य छोटे पड़ने लगते है. आज अणिमा को खिलौनों की दुकान की तुलना में शिक्षा की वह दुकान बहुत छोटी लगी जिसमे सुजय कभी कार्य किया करते थे.

- किरण सिन्धु

8 comments:

Waterfox said...

बहुत ही अच्छी लगी ये कहानी. अक्सर नकारात्मक अंत वाली कहानियों को वास्तविकता का तमगा मिल जाता है, लेकिन सच सकारात्मक भी तो हो सकता है! बहुत अच्छा लगा पढ़ कर.

n said...

Very good short story...liked it...look forward to more....

Manju said...

Bahut hi achchi lagi yeh laghu katha. ek private school ke teacher hone ke naate mujhe achche se maloom hai ki arthik pareshani kise kehte hai.

अरुण चन्द्र रॉय said...

bahut marmik kahani ! kaash avani jaise aur log bhi hote iss duniya mein ! Badhai !

रश्मि प्रभा... said...

didi ise prakashit hone bhejiye,bahut achhi kahani

डा. अमर कुमार said...


लेखनी प्रभावित करती है !

tellmeyourdreams said...

congratulation yet again aunty!! aapke post ke liye bhi aur aapke indiblogger rank ke liye bhi!!!
bahot bahot badhai aapko:)

संजय भास्‍कर said...

आपको हिन्दी में लिखता देख गर्वित हूँ.