Monday, June 22, 2009

"जीवन बोध" एवं "आओ एक परिवार बनाये"


मेरी निम्न दो कवितायेँ अंतरजाल पे प्रकाशित हुई है:

आपकी प्रतिक्रिया में आशान्वित,

किरण

Tuesday, June 9, 2009

मासूम प्रतियोगी, अबोध आत्मसम्मान


आजकल टेलिविज़न के अलग - अलग चैनलों पर बच्चों के लिए अनेक प्रकार की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जा रही हैं. इन्हीं में कुछ प्रतियोगिताएँ संगीत प्रतिभा से जुडी हुई हैं, या यों कहें कि सिने - संगीत में दक्ष बच्चों के चयन की प्रतियोगिताएँ हैं. नि;संदेह यह कार्य सराहनीय है, क्योंकि छोटी उम्र में ही संगीत - कला के प्रति रुझान रखने वाले बच्चों को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त होता है. परन्तु किसी - किसी प्रतियोगिता की चयन - प्रक्रिया दु;खद और कहीं -कहीं आपत्तिजनक है.

प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए आये बच्चे अपने माता - पिता या किसी अभिभावक के साथ घंटों भूख - प्यास, धूप, वर्षा को झेलते हुए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते रहते हैं. प्रत्येक कला की तरह संगीत - कला भी एक ऐसी कला है जिसमें मन और शरीर दोनों से साधना की जाती है. घंटों भूख - प्यास, धूप, वर्षा झेलते हुए बच्चे अपनी बारी आने पर क्या अपनी प्रतिभा का सही प्रस्तुतिकरण कर पाते हैं?जिन बच्चों का क्रम पहले आ जाता है वे तो कुछ सहज रहते हैं परन्तु वे बच्चे जिन्हें घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती है वे शायद ही अपनी प्रतिभा का सम्पूर्ण और सही प्रस्तुतिकरण करने के लायक रह जाते हैं. बच्चों के साथ उनके अभिभावकों के कष्ट और कभी - कभी उनके आक्रोश भी प्रतिभागियों की क्षमता को प्रभावित करते हैं.

जो प्रतिभागी चयनकर्ताओं के मंच तक पहुँचने में सफल हो जाते हैं उनके साथ चयनकर्ताओं की प्रतिक्रया हमेशा सहज नहीं होती. जो प्रतिभागी पहले दौर में चुन लिए जाते हैं उनका आना तो सफल हो जाता है परन्तु कभी - कभी कम क्षमता वाले प्रतिभागियों के गायन का उपहास भी उडाया जाता है. मेरे दृष्टिकोण से यह बच्चों के आत्मसम्मान के साथ खिलवाड़ करना है. चयनकर्ता यह भूल जाते हैं कि आप जिस बच्चे का मज़ाक उड़ा रहे हैं उसे विश्व - स्तर पर देखा और सुना जा रहा है. जब हम जैसे लोग इसे देख, सुन कर आहत होते हैं तो उन बच्चों पर क्या बीतती होगी? आपके पास से जाने के बाद वे बच्चे अपने दोस्तों और सम्बन्धियों के बीच उपहास का पात्र बनते हैं और उनकी असलफता कुंठा का रूप ले लेती है. अच्छा होता प्रतिभागी और उनके अभिभावक प्रतियोगिता के चयन - प्रक्रिया के नियमों का पालन करें तथा चयनकर्ता प्रतिभागियों की सुविधा और सम्मान दोनों का ध्यान रखें

-- किरण सिन्धु

Wednesday, June 3, 2009

मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी


मेरी एक कविता "मेरे घर आई थी ज़िन्दगी" www.hindyugm.com के मई महीने के "कवि सम्मलेन" में संचारित हुई है. इस को मैं लिखित रूप में यहाँ प्रस्तुत  कर रही हूँ, आप चाहे तो इसे आप इस लिंक http://podcast.hindyugm.com/2009/05/kavi-sammelan-rashmi-prabha-may-2009.html पर सुन सकते है जहाँ उसे मेरे शब्दों में संचारित किया गया है. 

काव्य प्रतिभा से संपन्न रश्मि प्रभा जी को मेरा हार्दिक धन्यवाद जिनकी प्रेरणा से मैं www.hindyugm.com के मंच तक  पहुची.

यह कविता मेरे दत्तक पुत्र अमितेश को समर्पित है जो अब इस दुनिया में नहीं है.

मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी
 
मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी,
वैसे तो पहले भी झाँका करती थी,
किसी झरोखे से,
और कभी थपथपाया करती थी,
खिड़कियों के कपाटों को,
लेकिन मैं ही अपने सन्नाटे के कोहरे में ढकी हुई,
उसे अनसुना, अनदेखा करती रही,
मूक, बधिर, दृष्टिहीन की तरह.
लेकिन बड़ी बिंदास थी वह ज़िन्दगी,
घर के कोने - कोने में समा गयी ज़िन्दगी,
चौके से आँगन तक छा गयी ज़िन्दगी.
 
मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी,
उसकी आँखों में एक चमक थी,  
उसकी हँसी में एक अर्थ था,
उसके अस्तित्व में एक आकर्षण था,
उसके नहीं होने पर एक सूनापन था.  
मेरे सभी अपनों को अपना बनाया उसने,
उनकी कठिनाइयों में भरोसा दिलाया उसने,
मेरे बोझों को कंधा लगाया उसने,
मुझे फिर से जीना सिखाया उसने.
 
लेकिन, एक दिन ---
हम सबको छोड़ गयी ज़िन्दगी, 
सभी अपनों से नाता तोड़ गयी ज़िन्दगी,
रूठ कर मुँह मोड़ गयी ज़िन्दगी,
सबको बिलखता छोड़ गयी ज़िन्दगी,
ना जाने कहाँ खो गयी ज़िन्दगी
शून्य में जाकर सो गयी ज़िन्दगी
मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी
 
---किरण सिन्धु