कंकरीली - पथरीली राह पर;
एक बटोही चलते - चलते थक गया,
जो कुछ उसके पास था वह लुट गया,
समय की तपिश में सब झुलस गया.
नियति के प्रहार से हो क्षत - विक्षत;
रिक्त झोली फैला कर वह पूछता,
हे विधाता! कैसा तेरा न्याय है,
दुःख ही क्या तेरा पर्याय है?
--किरण सिन्धु.
एक किसान की बेटी मंदिर में खड़ी होकर प्रार्थना कर रही थी --"हे प्रभु! सर्दी का मौसम आ गया, खेत में काम करते समय मेरे पैरों में ठंढ लगती है,मुझ पर कृपा करो,मुझे एक जोड़ी चप्पल दिलवा दो." तभी उसके पीछे से आवाज आई--" हे प्रभु! मेरी बैसाखियाँ तीन साल पुरानी हो गयी हैं, ये मेरा वजन नहीं संभाल पा रहीं हैं, मुझे एक जोड़ी नयी बैसाखियाँ दिलवा दो,तुम्हारी बड़ी कृपा होगी." किसान की बेटी ने पीछे मुड़ कर देखा, लगभग उसी के उम्र की एक बालिका खड़ी थी जिसके दोनों पैर बैसाखियों के सहारे झूल रहे थे.
कभी - कभी हमें लगता है कि हमारा दुःख सबसे बड़ा है.वस्तुतः दुःख बड़ा या छोटा नहीं होता,दुःख तो दुःख है -- वह असह्य होता है, उसे सहने वाला ही जानता है कि उसका दुःख उस पर आजीवन हावी रहता है. दीपावली के दिन सबसे पहले मोहन भैया का फोन आया. सुबह के सात बज रहे थे. मैं अपने दिवंगत बेटे किशु को याद करके दो दिनों से पागलों की तरह रो रही थी.भैया का फोन मेरे लिए अनापेक्षित था. उनहोंने कहा -- " किरण, मुझे लगा कि मेरे फोन की तुम्हें सबसे अधिक जरुरत है.बेटा, मैं जानता हूँ कि इस समय तुम्हारी मनःस्थिति कैसी होगी,लेकिन जीवन और मृत्यु हमारे वश में नहीं है,तुम मुझे देखो,आखिर मुझे जीना पड़ रहा है.अपने जीवन के बाकी साँसों को मैंने अपने लेखन को समर्पित कर दिया है.ईश्वर तुम्हें शक्ति दे!"
मोहन भैया स्नेह से मुझे बेटा ही कहते हैं.उनसे बात करने के बाद मुझे ऐसा लगा किसी ने एक छोटी लकीर के ठीक बगल में एक बड़ी लकीर खींच दी हो.भैया का बाहरी नाम श्री गजेन्द्र प्रसाद वर्मा है.राउरकेला स्टील प्लांट से ए. जी.एम् के पद से रिटायर होकर आजकल जमशेदपुर में रह रहे हैं. उनकी पहली संतान जुड़वा थी और दोनों ही पुत्र थे.बड़े ही प्यार से उनहोंने दोनों का नाम विनीत और अमित रखा. विनीत और अमित को ईश्वर ने वे सारे सदगुण दिए थे जो एक माता - पिता अपनी संतान में देखना चाहते हैं.इंजीनीयर पिता और शिक्षिका माता ने बड़े जतन से दोनों बच्चों को पाला. दोनों अपनी शिक्षा पूरी करके मुंबई में नौकरी करने लगे.परन्तु नियति को कुछ और ही स्वीकार था.१९९२ में २३ सितम्बर को विनीत की ह्रदय - गति अवरुद्ध होने के कारण मृत्यु हो गयी.इस वज्रपात ने भैया - भाभी के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला.अमित ने बड़े धैर्य से मम्मी - पापा को संभाला. समय धीरे - धीरे आगे बढ़ने लगा. भैया - भाभी अमित की शादी करना चाहते थे.शायद इसी बहाने उनके आँगन की खुशियाँ लौट आये.लेकिन हा विधाता! विनीत की मृत्यु के दो साल छह महीने बाद मार्च,१९९५ में अमित भी अपने मामी - पापा को रोता बिलखता छोड़ सदा की नींद सो गया. यह जीवन प्रारंभ तो एक ही तरह से होता है परन्तु इसकी गति - परिणति कोई नहीं जानता.भैया के दुःख को उनके द्बारा रचित ये शब्द अधिक व्यक्त करेंगे......
वेदना की यामिनी में दीप जलता जा रहा है,
वेदना से जात जीवन,
वेदना से स्नात जीवन,
वेदना से स्नेह लेकर,
दीप जलता जा रहा है.
(-"जटायु" पत्रिका में प्रकाशित. )
भैया और भाभी ने अपने दोनों बच्चों के नाम पर संत.पॉल स्कूल,राउरकेला में बारहवीं और दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए स्कोलरशिप खोल दिया है. कुछ दिन पहले भाभी भी अपने बच्चों के पास चली गयीं.६७ वर्ष की उम्र में भैया बीमार शरीर और घायल मन लेकर अकेले रहते हैं.आखिर बेसुध की सुधि लेवे कौन?
--किरण सिन्धु.