Thursday, December 31, 2009

मेरे अपनों के नाम...


नववर्ष मंगलमय हो!

सूरज की सुनहरी किरणें और गुनगनी धूप,
प्रगति की शीतल बयार और झंझावातों से लड़ने की शक्ति,
सफलता से भरे दिन और नींद भरी शांत रातें,
सच्चे साथी का प्यार और बड़ों का आशीर्वाद,

ईश्वर करे नववर्ष आपके जीवन में ये सारी खुशियाँ लेकर आये!!!!!!!!
हार्दिक शुभकामना.
-किरण सिन्धु.


Thursday, October 22, 2009

बेसुध की सुधि लेवे कौन?


कंकरीली - पथरीली राह पर;
एक बटोही चलते - चलते थक गया,
जो कुछ उसके पास था वह लुट गया,
समय की तपिश में सब झुलस गया.
नियति के प्रहार से हो क्षत - विक्षत;
रिक्त झोली फैला कर वह पूछता,
हे विधाता! कैसा तेरा न्याय है,
दुःख ही क्या तेरा पर्याय है?

--किरण सिन्धु.


एक किसान की बेटी मंदिर में खड़ी होकर प्रार्थना कर रही थी --"हे प्रभु! सर्दी का मौसम आ गया, खेत में काम करते समय मेरे पैरों में ठंढ लगती है,मुझ पर कृपा करो,मुझे एक जोड़ी चप्पल दिलवा दो." तभी उसके पीछे से आवाज आई--" हे प्रभु! मेरी बैसाखियाँ तीन साल पुरानी हो गयी हैं, ये मेरा वजन नहीं संभाल पा रहीं हैं, मुझे एक जोड़ी नयी बैसाखियाँ दिलवा दो,तुम्हारी बड़ी कृपा होगी." किसान की बेटी ने पीछे मुड़ कर देखा, लगभग उसी के उम्र की एक बालिका खड़ी थी जिसके दोनों पैर बैसाखियों के सहारे झूल रहे थे.

कभी - कभी हमें लगता है कि हमारा दुःख सबसे बड़ा है.वस्तुतः दुःख बड़ा या छोटा नहीं होता,दुःख तो दुःख है -- वह असह्य होता है, उसे सहने वाला ही जानता है कि उसका दुःख उस पर आजीवन हावी रहता है. दीपावली के दिन सबसे पहले मोहन भैया का फोन आया. सुबह के सात बज रहे थे. मैं अपने दिवंगत बेटे किशु को याद करके दो दिनों से पागलों की तरह रो रही थी.भैया का फोन मेरे लिए अनापेक्षित था. उनहोंने कहा -- " किरण, मुझे लगा कि मेरे फोन की तुम्हें सबसे अधिक जरुरत है.बेटा, मैं जानता हूँ कि इस समय तुम्हारी मनःस्थिति कैसी होगी,लेकिन जीवन और मृत्यु हमारे वश में नहीं है,तुम मुझे देखो,आखिर मुझे जीना पड़ रहा है.अपने जीवन के बाकी साँसों को मैंने अपने लेखन को समर्पित कर दिया है.ईश्वर तुम्हें शक्ति दे!"

मोहन भैया स्नेह से मुझे बेटा ही कहते हैं.उनसे बात करने के बाद मुझे ऐसा लगा किसी ने एक छोटी लकीर के ठीक बगल में एक बड़ी लकीर खींच दी हो.भैया का बाहरी नाम श्री गजेन्द्र प्रसाद वर्मा है.राउरकेला स्टील प्लांट से ए. जी.एम् के पद से रिटायर होकर आजकल जमशेदपुर में रह रहे हैं. उनकी पहली संतान जुड़वा थी और दोनों ही पुत्र थे.बड़े ही प्यार से उनहोंने दोनों का नाम विनीत और अमित रखा. विनीत और अमित को ईश्वर ने वे सारे सदगुण दिए थे जो एक माता - पिता अपनी संतान में देखना चाहते हैं.इंजीनीयर पिता और शिक्षिका माता ने बड़े जतन से दोनों बच्चों को पाला. दोनों अपनी शिक्षा पूरी करके मुंबई में नौकरी करने लगे.परन्तु नियति को कुछ और ही स्वीकार था.१९९२ में २३ सितम्बर को विनीत की ह्रदय - गति अवरुद्ध होने के कारण मृत्यु हो गयी.इस वज्रपात ने भैया - भाभी के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला.अमित ने बड़े धैर्य से मम्मी - पापा को संभाला. समय धीरे - धीरे आगे बढ़ने लगा. भैया - भाभी अमित की शादी करना चाहते थे.शायद इसी बहाने उनके आँगन की खुशियाँ लौट आये.लेकिन हा विधाता! विनीत की मृत्यु के दो साल छह महीने बाद मार्च,१९९५ में अमित भी अपने मामी - पापा को रोता बिलखता छोड़ सदा की नींद सो गया. यह जीवन प्रारंभ तो एक ही तरह से होता है परन्तु इसकी गति - परिणति कोई नहीं जानता.भैया के दुःख को उनके द्बारा रचित ये शब्द अधिक व्यक्त करेंगे......

वेदना की यामिनी में दीप जलता जा रहा है,
वेदना से जात जीवन,
वेदना से स्नात जीवन,
वेदना से स्नेह लेकर,
दीप जलता जा रहा है.
(-"जटायु" पत्रिका में प्रकाशित. )

भैया और भाभी ने अपने दोनों बच्चों के नाम पर संत.पॉल स्कूल,राउरकेला में बारहवीं और दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए स्कोलरशिप खोल दिया है. कुछ दिन पहले भाभी भी अपने बच्चों के पास चली गयीं.६७ वर्ष की उम्र में भैया बीमार शरीर और घायल मन लेकर अकेले रहते हैं.आखिर बेसुध की सुधि लेवे कौन?
--किरण सिन्धु.

Wednesday, October 14, 2009

काश!!!!!!

लगा कर आग मेरी कोख में तूने;
जला कर राख कर दी जिन्दगी,
मेरी चीखें तुझे सोने ना देंगी;
मेरे आँसू तुझे जीने ना देंगे,
मेरी सिसकियाँ तेरे घर का पता पूछती हैं,
बता दे किस कसूर की ऐसी सजा दी?



आजकल जब भी समाचार देखने के लिए टीवी खोलती हूँ अक्सर किसी ना किसी की ह्त्या या आत्महत्या का समाचार देखने को मिलता है.कभी कोई बाईस वर्षीय इंजीनीयर ने छत से कूद कर जान दे दी, तो कभी गगनदीप जैसे क्रिकेटर की गोली लगने से मृत्यु हो गयी. ऐसा युवा पीढ़ी के साथ अधिक हो रहा है. ना तो आत्महत्या करने वाले सोंचते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार पर क्या बीतेगी, और ना ही ह्त्या करने वालों को इस बात से कोई सारोकार है कि जिसकी जान वो ले रहे हैं, उस पर आश्रितजनों का क्या होगा?माँ सर पीट - पीट कर विलाप करती है, बाप जवान बेटे या बेटी के अर्थी को कँधा लगाता है. ना जाने मानवीय चेतना को क्या हो गया है? हम इतने स्वार्थी क्यों हो गए हैं कि सिर्फ अपने बारे में ही सोंच रहे हैं?आज की युवा पीढ़ी क्यों दिशाभ्रमित हो रही है?किसी बिमारी से या किसी दुर्घटना में हमारे किसी प्रिय की मृत्यु होती है तब भी हम रोते हैं, दु:खी होते हैं परन्तु आत्महत्या या ह्त्या के कारण हुई मृत्यु की स्थिति में दुःख के साथ - साथ क्षोभ भी होता है. कारण जो भी हो पर एक हूक सी निकलती है......... काश! ऐसा नहीं होता.
--किरण सिन्धु.

Sunday, September 13, 2009

शक्ति


लहू जब अंगारा बनने लगे;
नसें जब प्रत्यंचा सी तनने लगे,
साँसों में हुंकार भरने लगे,
आँखों से ज्वाला निकलने लगे,
ये आत्म शक्ति कही जाती है,
ये अन्दर हमारे विराजती है।

ये शक्ति प्रसव की पीड़ा में है,
जिससे यह सृष्टि चलायमान है।
ये शक्ति वसुधा के धैर्य में है,
जिस पर यह सृष्टि विद्यमान है।
हमारी क्षमता कही जाती है,
ये अन्दर हमारे विराजती है।

सीता ने जो अग्नि - परिक्षा दी,
यह उसके चरित्र की शक्ति थी।
मीरा ने जब विषपान किया,
यह भक्ति की पवित्र शक्ति थी।
समर्पण है प्रतिकार नहीं जानती है,
ये अन्दर हमारे विराजती है।

प्रबल शक्तियों के समावेश से,
माँ दुर्गा दुर्गनाशिनी बनी.
जया, विजया, आद्या, अभया,
असुरों की संहारिणी बनी.
अम्बे कल्याणी कही जाती हैं,
ये अन्दर हमारे विराजती हैं.

अगर टूट कर तुम बिखरने लगो,
निराशा के भँवर में घिरने लगो,
कोई संगी - साथी नहीं पास हो,
आत्मा की शक्ति को आवाज दो.
अंततः हमें वही काम आती है,
ये अन्दर हमारे विराजती है.

--किरण सिन्धु.

Saturday, September 5, 2009

दुकान


अणिमा ने दीवाल घड़ी पर नजर डाली और "आज फिर देर से आये ....." कहते हुए सामने खड़े सुजय को देखा जो पूरी तरह से पसीने में भीगे हुए थे.अपने दाहिने हाथ से सीने को दबाए जोर - जोर से हाँफ रहे थे और कुछ कहने की कोशिश कर रहे थे.शब्द जब होठों तक आकर रुकने लगे तो उन्हों ने इशारे से पानी माँगा. सुजय की दयनीय स्थिति देख कर अणिमा का क्रोध कुछ देर के लिए लुप्त हो गया. उन्हों ने कुर्सी की तरफ संकेत कर के सुजय को बैठने के लिए कहा और टेबल पर रखी हुई घंटी को हाथ से दबाया. चपरासी के अन्दर आते ही उन्हों ने शीघ्र ही एक ग्लास पानी लाने को कहा. साइड - टेबल पर पड़े हुए तौलिये को सुजय की तरफ बढाते हुए कहा-
"पहले अपने चेहरे से पसीना पोंछिये."
तब तक चपरासी पानी से भरा ग्लास लेकर आ चुका था. सुजय ने एक ही घूँट में ग्लास खाली कर दिया और बड़े ही कातर दृष्टि से और एक ग्लास पानी की माँग की.चपरासी ग्लास लेकर ऑफिस से बाहर चला गया.अब सुजय कुछ कहने की स्थिति में आ गए थे.संक्षेप में उन्हों ने इतना ही बताया कि पिछले कई दिनों से साइकिल चलाते वक्त उनके सीने में दर्द होने लगता है और वे बहुत ही जल्दी हाँफने लगते हैं. हर पांच मिनट के बाद उन्हें साइकिल से उतर कर अपनी साँस को नियंत्रित करना पड़ता है.
अणिमा एक उच्च विद्यालय की प्रधानाधापिका थी. यह एक निजी विद्यालय था लेकिन इसे केन्द्रीय बोर्ड से मान्यता प्राप्त थी.सुजय इस विद्यालय में गणित के अध्यापक थे और नौवीं - दसवीं कक्षा को पढाते थे.ऍम.एस.सी तक की परीक्षा उन्हों ने प्रथम श्रेणी में ही पास की थी. विद्यालय के सुयोग्य शिक्षकों में गिने जाने वाले सुजय अनुशासनप्रिय ,परिश्रमी और व्यवहारकुशल व्यक्ति थे.
अणिमा को इस समय उन्हें इतना निरीह देख कर बहुत दया आ रही थी.कुछ क्षण बाद उन्हों ने सुजय से पूछा -----
"किसी डॉक्टर से दिखवाया"?
" नहीं, दो -चार दिनों में दिखा लूँगा."
अणिमा को समझते देर ना लगी कि पैसे की कमी के कारण सुजय स्वयं को किसी डॉक्टर से नहीं दिखा रहे हैं और "दो - चार" दिन का अर्थ है,वे वेतन मिलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. सुजय के परिवार की आर्थिक स्थिति साधारण थी. उनके वृद्ध पिता किसान थे. बड़े भाई फौज में थे जो देश की रक्षा हेतु शहीद हो चुके थे. विधवा भाभी माँ पिताजी के साथ गाँव में ही रहती थी परन्तु अपने दिवंगत भाई के दोनों बच्चों को सुजय अपने साथ रख के पढ़ा रहे थे.सुजय का विवाह तीन वर्ष पूर्व हुआ था और एक चार महीने की बेटी थी. ऐसे तो किसी तरह घर का खर्च पूरा हो जाता था लेकिन महीने के अंतिम सप्ताह में इलाज के लिए वे सोंच भी नहीं सकते थे. अणिमा मन ही मन सोंचने लगी और बहुत संभाल कर कहा --
" इसे अन्यथा नहीं लीजियेगा, यदि इलाज के लिए पैसे की जरुरत है तो बोलिए "
सुजय ने बिना कुछ कहे आँखे झुका ली. प्रधानाध्यापिका की कुर्सी ने पिछले बीस सालों में" मौन भाषा " को भी पढ़ना सीखा दिया था.अपने पर्स में से दो हजार रूपये निकाल कर सुजय की तरफ बढ़ाती हुई बोलीं --
"डॉ.हरीश वर्मा से मेरा पारिवारिक सम्बन्ध है.वे एक अच्छे फिजिशयन हैं और ह्रदय - रोग विशेषग्य भी, मैं उन्हें फोन कर देती हूँ ,वे आपको अच्छी तरह देख भी लेंगे और हर तरह की जांच भी वहीं हो जायगी. इतना कह कर अणिमा डॉ.हरीश वर्मा को फोन लगाने लगीं. डॉ. हरीश से बात होने के बाद उन्हों ने सुजय से कहा --
" आप साइकिल यहीं छोड़ दीजिये और रिक्शा पकड़ कर डॉ.वर्मा के क्लीनिक चले जाइए,डॉक्टर साहब अभी क्लीनिक में ही है."
सुजय की आँखों में कृतज्ञता के भाव स्पष्ट देखे जा सकते थे.वह आभार प्रकट करते हुए उठ खड़ा हुआ.अणिमा ने पुनः कहा --
"यदि कोई समस्या हो तो वहीं से फोन करे."
सुजय के जाने के बाद अणिमा कुछ चिंतित सी हो उठीं.एक अज्ञात आशंका ने मन को घेर लिया---कहीं सुजय को किसी प्रकार का गंभीर ह्रदय- रोग तो नहीं ---- वैसे भी वे अपने विद्यालय के सभी कर्मचारियों के प्रति बहुत स्नेह रखती थीं.सुजय के बारे में भी उनकी चिंता स्वाभाविक थी क्यों कि वे अच्छी तरह जानती थीं कि निजी विद्यालय के शिक्षक के लिए किसी बड़ी बिमारी का इलाज देश के बड़े अस्पतालों में जाकर कराना मुश्किल ही नहीं असंभव है.
शाम को डॉ.वर्मा का फोन आया तो वे और भी व्यग्र हो उठीं .उन्हों ने बताया कि सुजय के ह्रदय के वाल्व में खराबी है जो सिर्फ ऑपरेशन से ही ठीक हो सकता है. सावधानी के लिए उन्हों ने यह भी कहा कि जब तक ऑपरेशन नहीं हो जाता तब तक सुजय साइकिल नहीं चलाये.
अगले दिन जब वह विद्यालय पहुँची तो सुजय अपने सारे रिपोर्ट के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. बहुत उदास थे. अणिमा ने उन्हें बैठने के लिए कहा.सहानुभूति भरे शब्द सुनते ही उनकी आँखों में आँसू आ गए. अणिमा ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा -
" घबराने से कुछ नहीं होता है, किसी भी तरह ऑपरेशन के लिए सोंचना होगा क्योंकि अभी बिमारी की शुरुआत है". उन्हों ने पुनः कहा कि वे डॉ.वर्मा से एम्स में ऑपरेशन के अनुमानित खर्च के बारे में बात करेंगी.
सुजय ने सहमते हुए अपना त्यागपत्र बढाया. अणिमा ने समझाते हुए कहा --
" अभी आप छुट्टी के लिए आवेदन दीजिये और अग्रिम वेतन लेकर दिल्ली चले जाइए.दिल्ली में एम्स के डॉक्टर क्या कहते हैं उसी के अनुसार आगे के बारे में सोंचियेगा."
अगले दिन सुजय अपने साले के साथ दिल्ली चले गए.एक सप्ताह बाद उनका फोन आया कि एम्स के डॉक्टर यथाशीघ्र ऑपरेशन के लिए कह रहे हैं अतः विद्यालय उनकी जगह किसी दूसरे शिक्षक की नियुक्ति कर ले. अणिमा को एक होनहार शिक्षक के चले जाने का अत्यंत दुःख था परन्तु वह जानती थी कि विद्यालय - समिति सुजय के इलाज के लिए किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं देगी.

सुजय को विद्यालय छोड़े करीब दस महीने बीत चुके थे. दुर्गा - पूजा के अवसर पर शहर में बहुत चहल - पहल थी.अणिमा नियमतः अष्टमी और नवमी के दिन देवी - मंदिर जाती थी.आज भी वह मंदिर में पूजा कर के जैसे ही वापस आयी कोई "प्रणाम मैडम" कहते हुए उनके पैरों पर झुक गया.
"खुश रहिये " कहते हुए उन्होंने झुके हुए युवक को उठाया. अणिमा को आर्श्चय के साथ - साथ ख़ुशी भी हुई. सामने मुस्कुराते हुए सुजय खड़े थे.
"अरे आप ---सुजय जी कैसे हैं?"
" आपके आर्शीवाद से बिलकुल ठीक हूँ, आपने तो मुझे नया जीवन दिया है."
"ऑपरेशन ठीक से हो गया ? कोई परेशानी तो नहीं है?"
"नहीं मैडम, कोई परेशानी नहीं है " पुनः बड़े आग्रह से कहा -
"आइये न मैडम, यहाँ मेरी एक छोटी सी दुकान है."
"दुकान ?????" कहती हुई अणिमा सुजय के साथ चल पडी.
दोनों एक खिलौने की दुकान पर पहुँचे. अणिमा ने देखा एक बहुत ही सुन्दर युवती दुकान में खड़े लगभग एक दर्जन बाल ग्राहकों को संभाल रही थी. यह सुजय की पत्नी थी सुजय ने जैसे ही का परिचय कराया वह चरण - स्पर्श करने के लिए झुक गयी. दोनों ने बड़े सम्मान से अणिमा को बिठाया. अणिमा के बिना पूछे ही सुजय ने बताया कि उस समय ऑपरेशन का खर्च उनकी भाभी ने दिया.भैया की मृत्यु के बाद जो पैसे सरकार से मिले थे, बिना माँगे ही भाभी ने उसके अकाउंट में डाल दिए थे यह कहते हुए कि" आपसे तो हम सबका भविष्य जुड़ा हुआ है".अपनी बात जारी रखते हुए सुजय ने कहा कि उन्हीं पैसों को वापस भाभी के अकाउंट में रखने के लिए उन्हों ने एक खिलौने की दुकान खोल ली है जिसमे खिलौनों के साथ - साथ पेन, पेंसिलऔर पढ़ने - लिखने से सम्बंधित और भी चीजें बिकती हैं.दूकान के आस - पास कई छोटे -बड़े विद्यालय है, इस लिए सामानों की विक्री भी सहज ही हो जाती है.जब वे घर पर ट्यूशन पढाते हैं तो उनकी पत्नी दुकान संभालती है.अणिमा जब वहाँ से चलने लगी तो सुजय ने एक लिफाफे में दो हजार रूपये रख कर उनकी तरफ बढाए.अणिमा ने पैसे वापस करते हुए कहा -
"अपनी भाभी के सहयोग की तरह इसे माँ का आर्शीवाद समझ कर रख लीजिये "

जब जीवन की रक्षा का प्रश्न उठता है तो सारे नैतिक मूल्य छोटे पड़ने लगते है. आज अणिमा को खिलौनों की दुकान की तुलना में शिक्षा की वह दुकान बहुत छोटी लगी जिसमे सुजय कभी कार्य किया करते थे.

- किरण सिन्धु

Sunday, August 16, 2009

निर्वाह


निर्वाह

नहीं आती मंजिल चल कर कर कभी भी;
कदम तुझी को बढाना पडेगा,

जिस रथ की सवारी की है जगत ने ;
समय उसका स्वयं सारथी है,
पलट कर कभी भी ना देखा है उसने;
बड़ा ही प्रबल है,बड़ा महारथी है.

प्रतीक्षा नहीं वह करता किसी का,
तुझे उसके संग आगे जाना पडेगा,

किसी से सहारे की उम्मीद न करना;
सहारे हमें बेबस, लाचार करते,
टूट कर बिखर जाता आत्मबल हमारा,
अगर अपनी शक्ति को अस्वीकार करते.

कठिन है मगर असंभव नहीं है,
अपने बोझ को खुद उठाना पडेगा.

अगर कोई अपना बिछड़ जाए तुझसे
यादों को उसकी धरोहर समझना,
ह्रदय की तिजोरी में संचित कर के,
हर क्षण उसे अपने पास रखना.

जाकर कभी कोई वापस ना आता,
बिना उसके तुझको संभलना पडेगा.

आँखों से आँसू छलकने लगे तो;
अपनी हथेलियों को नम कर लेना,
रुदन सिसकियों में बदलने लगे तो,
होठों के अन्दर दफ़न कर देना.

नहीं समझेगा कोई तेरी हालत,
तुझे ही अपने को समझाना पडेगा.

--किरण सिन्धु

एक नयी उपलब्धि: मेरी कविता "नारी तेरे रूप अनेक" को काव्यांजलि ने प्रथम पुरस्कार से समान्नित किया है। http://www.kaavyanjali.com/PrevContest1.htm
काव्यांजलि पत्रिका को मेरा हार्दिक धन्यवाद्! आप मेरी पुरस्कृत कविता यहाँ पढ़ सकते है: http://www.kaavyanjali.com/Naarii-ks.htm

Friday, July 31, 2009

बोझिल पल


क्या कहूँ अपने दिल की हालत...
तेरा नहीं होना एक ख्वाब सा लगता है,
डबडबाई आँखों से जिधर देखती हूँ,
दूर तक बस सैलाब सा लगता है.


--किरण सिन्धु

हादसे हमारे जीवन को किस हद तक बदल देते हैं, इसका अनुभव अपने- आप में बहुत दर्दनाक है। वैसे तो सुबह होती है, दिन ढलता है, फिर रात होती है और समय बीतता जाता है, लेकिन जब कोई विशेष अवसर होता है तो यह समय चट्टान बन कर ह्रदय को कुचलने लगता है। सभी यादें आँसू और सिसकियों में बदल जाती हैं। किशु के जाने के बाद त्योहारों से डर लगने लगा है। प्रयेक वर्ष श्रावन में महादेव, भाद्र मास में गणपति एवं कृष्ण, आश्विन में माँ दुर्गा और कार्तिक में छठ माता के स्वागत और पूजन की तैयारियों में वक्त कैसे बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. ह्रदय उमंग से भरा रहता था और चेतना पर ईश्वर के प्रति अखंड विश्वास का साम्राज्य, कहीं कुछ छूट ना जाए...कहीं कोई भूल ना हो जाए. प्रत्येक विधि-विधान को पूरी सावधानी से करने का प्रयास...बस एक ही डर, कहीं कोई अमंगल ना हो जाए. हर क्षण कंठ से एक ही शब्द-ध्वनि -"हे ईश्वर मेरे बच्चों की रक्षा करना!" लेकिन आज सारे तथ्य बदल गए हैं. मन भ्रमित रहने लगा है. कुछ ही दिनों बाद रक्षाबंधन का त्यौहार है. मेरी मुनिया जो वर्षों से दो राखी बांधती आयी थी, कैसे बांधेगी एक ही कलाई पर राखी!!! उसके दुःख का आभास मुझे इतना विह्वल कर रहा है, वह इस दुःख को कैसे सहेगी? हे ईश्वर! उसे शक्ति देना.

हे ईश्वर! उन सभी घरों पर विशेष कृपा करना, उन्हें दुःख सहने की शक्ति देना जिनके बच्चों को आपने अपने पास बुला लिया है.


Thursday, July 2, 2009

छोड़ आयी थी जिसे...


छोड़ आयी थी जिसे...

गहरे सन्नाटे को चीरती हुई,
किसी के क़दमों की धीमी सी आहट,
अक्सर सुनाई देती है मुझे;
और यह आहट मुझ तक
पहुँच कर थम जाती है.
अपने बहुत करीब,
किसी के होने का एहसास होता है,
गौर से देखा चेहरा उसका,
और धीरे - धीरे उसके पूरे आकार को,
सहमी हुई मुस्कराहट के साथ उसने कहा...
" पहचाना नहीं मुझे?"
मैं तो वही की वही हूँ,
बिलकुल वैसी ही,
वर्षों पहले छोड़ आयी थी जिसे.
मेरी आँखों में सपने भरे थे तुमने,
हौसले भी बुलंद किये थे मेरे,
दिशाएँ अपनी थीं और
आसमान को छूने की आस,
कुछ भी असंभव नहीं था.
तुमने मुझे कितना सँवारा था!
अवहेलना और तिरस्कार
मेरे लिए अपरिचित थे.
पर ना जाने क्यों तुमने,
स्वयं से मुझे अलग कर दिया,
तुम तो खो गयी दुनिया की भीड़ में;
दब गयी जिम्मेदारियों के बोझ तले,
चल पड़ी कंकरीली - पथरीली राह पर ,
सहने लगी जो कुछ था असह्य.
कभी मुड़ कर देखा नहीं मुझे;
कभी सोंचा भी नहीं मेरे बारे में,
मैं रोती रही तुम्हारी दुर्दशा पर;
प्रतीक्षा करती रही, कब तुम मेरी सुध लोगी,
कब सोचोगी मैं क्या चाहती थी
मैं तुमसे विमुख ना हो सकी;
क्योंकि मैं तुम्हारी ही अस्मिता हूँ
वर्षों पहले छोड़ आयी थी जिसे.

---किरण सिन्धु

Monday, June 22, 2009

"जीवन बोध" एवं "आओ एक परिवार बनाये"


मेरी निम्न दो कवितायेँ अंतरजाल पे प्रकाशित हुई है:

आपकी प्रतिक्रिया में आशान्वित,

किरण

Tuesday, June 9, 2009

मासूम प्रतियोगी, अबोध आत्मसम्मान


आजकल टेलिविज़न के अलग - अलग चैनलों पर बच्चों के लिए अनेक प्रकार की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जा रही हैं. इन्हीं में कुछ प्रतियोगिताएँ संगीत प्रतिभा से जुडी हुई हैं, या यों कहें कि सिने - संगीत में दक्ष बच्चों के चयन की प्रतियोगिताएँ हैं. नि;संदेह यह कार्य सराहनीय है, क्योंकि छोटी उम्र में ही संगीत - कला के प्रति रुझान रखने वाले बच्चों को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त होता है. परन्तु किसी - किसी प्रतियोगिता की चयन - प्रक्रिया दु;खद और कहीं -कहीं आपत्तिजनक है.

प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए आये बच्चे अपने माता - पिता या किसी अभिभावक के साथ घंटों भूख - प्यास, धूप, वर्षा को झेलते हुए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते रहते हैं. प्रत्येक कला की तरह संगीत - कला भी एक ऐसी कला है जिसमें मन और शरीर दोनों से साधना की जाती है. घंटों भूख - प्यास, धूप, वर्षा झेलते हुए बच्चे अपनी बारी आने पर क्या अपनी प्रतिभा का सही प्रस्तुतिकरण कर पाते हैं?जिन बच्चों का क्रम पहले आ जाता है वे तो कुछ सहज रहते हैं परन्तु वे बच्चे जिन्हें घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती है वे शायद ही अपनी प्रतिभा का सम्पूर्ण और सही प्रस्तुतिकरण करने के लायक रह जाते हैं. बच्चों के साथ उनके अभिभावकों के कष्ट और कभी - कभी उनके आक्रोश भी प्रतिभागियों की क्षमता को प्रभावित करते हैं.

जो प्रतिभागी चयनकर्ताओं के मंच तक पहुँचने में सफल हो जाते हैं उनके साथ चयनकर्ताओं की प्रतिक्रया हमेशा सहज नहीं होती. जो प्रतिभागी पहले दौर में चुन लिए जाते हैं उनका आना तो सफल हो जाता है परन्तु कभी - कभी कम क्षमता वाले प्रतिभागियों के गायन का उपहास भी उडाया जाता है. मेरे दृष्टिकोण से यह बच्चों के आत्मसम्मान के साथ खिलवाड़ करना है. चयनकर्ता यह भूल जाते हैं कि आप जिस बच्चे का मज़ाक उड़ा रहे हैं उसे विश्व - स्तर पर देखा और सुना जा रहा है. जब हम जैसे लोग इसे देख, सुन कर आहत होते हैं तो उन बच्चों पर क्या बीतती होगी? आपके पास से जाने के बाद वे बच्चे अपने दोस्तों और सम्बन्धियों के बीच उपहास का पात्र बनते हैं और उनकी असलफता कुंठा का रूप ले लेती है. अच्छा होता प्रतिभागी और उनके अभिभावक प्रतियोगिता के चयन - प्रक्रिया के नियमों का पालन करें तथा चयनकर्ता प्रतिभागियों की सुविधा और सम्मान दोनों का ध्यान रखें

-- किरण सिन्धु

Wednesday, June 3, 2009

मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी


मेरी एक कविता "मेरे घर आई थी ज़िन्दगी" www.hindyugm.com के मई महीने के "कवि सम्मलेन" में संचारित हुई है. इस को मैं लिखित रूप में यहाँ प्रस्तुत  कर रही हूँ, आप चाहे तो इसे आप इस लिंक http://podcast.hindyugm.com/2009/05/kavi-sammelan-rashmi-prabha-may-2009.html पर सुन सकते है जहाँ उसे मेरे शब्दों में संचारित किया गया है. 

काव्य प्रतिभा से संपन्न रश्मि प्रभा जी को मेरा हार्दिक धन्यवाद जिनकी प्रेरणा से मैं www.hindyugm.com के मंच तक  पहुची.

यह कविता मेरे दत्तक पुत्र अमितेश को समर्पित है जो अब इस दुनिया में नहीं है.

मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी
 
मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी,
वैसे तो पहले भी झाँका करती थी,
किसी झरोखे से,
और कभी थपथपाया करती थी,
खिड़कियों के कपाटों को,
लेकिन मैं ही अपने सन्नाटे के कोहरे में ढकी हुई,
उसे अनसुना, अनदेखा करती रही,
मूक, बधिर, दृष्टिहीन की तरह.
लेकिन बड़ी बिंदास थी वह ज़िन्दगी,
घर के कोने - कोने में समा गयी ज़िन्दगी,
चौके से आँगन तक छा गयी ज़िन्दगी.
 
मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी,
उसकी आँखों में एक चमक थी,  
उसकी हँसी में एक अर्थ था,
उसके अस्तित्व में एक आकर्षण था,
उसके नहीं होने पर एक सूनापन था.  
मेरे सभी अपनों को अपना बनाया उसने,
उनकी कठिनाइयों में भरोसा दिलाया उसने,
मेरे बोझों को कंधा लगाया उसने,
मुझे फिर से जीना सिखाया उसने.
 
लेकिन, एक दिन ---
हम सबको छोड़ गयी ज़िन्दगी, 
सभी अपनों से नाता तोड़ गयी ज़िन्दगी,
रूठ कर मुँह मोड़ गयी ज़िन्दगी,
सबको बिलखता छोड़ गयी ज़िन्दगी,
ना जाने कहाँ खो गयी ज़िन्दगी
शून्य में जाकर सो गयी ज़िन्दगी
मेरे घर आयी थी ज़िन्दगी
 
---किरण सिन्धु


Thursday, May 28, 2009

रे मन !


रे मन इतना चंचल क्यूँ है?

समय का पंछी पंख पसारे,
हरदम आगे उड़ता जाये;
लेकिन तू तो वर्षों पीछे,
मुझको अपने संग ले जाये;
यादों में उलझा-भटका कर,
बेसुध कर वही छोड़ आये.

रे मन इतना व्याकुल क्यूँ है?

तू तो सुख-दु:ख का है वाहक,
फिर दु:ख तुझपे हावी कैसे;
अंबर में बिखरी किरणों को,
ढक लेते है बादल जैसे;
हम तो तुझ पर ही आश्रित हैं,
साँसों पर जीवन है जैसे.

रे मन इतना घायल क्यूँ है?

लगता है तू थक सा गया है,
अंतर्द्वंद से लड़ते-लड़ते;
फिर भी तुझको जीना होगा,
सौ-सौ मौते मरते-मरते;
जीवन बस वही रुक जाता,
जिस क्षण तुम हो उससे बिछड़ते.

- किरण सिन्धु

Monday, May 18, 2009

मेरी सहभागिता


आज   सुबह  जब  मैं  टहलने  गई  थी  तो  सामने  से  अमित   आ  रहा  था  . वह  कभी  मेरे  पड़ोस   में  रहा  करता  था .  आज  सामने  पड़ने   पर  नमस्ते  आंटी  कहकर  आगे  बढ़  गया . उसके  इस  ब्यवहार  पर  मुझे  कुछ  आश्चर्य  भी  हुआ . क्योंकि  वह   बहुत  ही  हँसमुख  लड़का  था . आज  मुझे  वह  बहुत  उदास  दिखा . घर  आने  पर  मेरे  बेटे  ने  बताया  कि  मंदी  के  कारण  उसकी  नौकरी  चली  गयी   है. 

मैं आए दिन यह सुनती हूँ  कि कभी मेरे बच्चों के मित्रो में से किसी की  नौकरी मंदी का शिकार हुई तो कभी उनकी कंपनी से कुछ कर्मचारियों को निकाल  दिया गया . ऐसे लोग एक अजीब सी कुंठा से ग्रस्त  हो जाते हैं,  ऐसा लगता  है कि उनसे कोई पाप हो गया है . पिछले  कुछ महीनो से मंदी की  महामारी ने अनेक घरों का सुख- चैन छीन  लिया है, और इससे सबसे अधिक प्रभावित युवा- पीढी  हुई  है क्योंकि मंदी का शिकार वे कमचारी अधिक है जिन्हें संस्था में काम करते हुए सबसे कम समय हुआ है. इसका दुष्परिणाम तीन  प्रकार से हुआ है.
  • पहला, जिन कर्मचारियों को निकाला जा रहा है, वे अपने परिवार के साथ इस संताप को झेल रहे हैं. किसी को भी इस बात से तात्पर्य  नहीं है कि अब उनके घर का चूल्हा कैसे जलेगा, उनके बच्चों की  या छोटे भाई बहनों की फीस कहाँ से आयेगी या उनके माता-पिता की  दवा के लिए पैसे कहाँ से आएंगे . वे असह्य तनाव  का जीवन जीने को बाध्य  है.
  • दूसरा, जो कर्मचारी अभी कंपनी में कार्यरत हैं वे एक असुरक्षा की  भावना से ग्रस्त हैं. वे इस बात से अशांत  हैं कि कल उनकी नौकरी भी खतरे  में पड़ सकती है. ऐसी  स्थिति में वे  अंतर्द्वंद से जूझते  रहते हैं . 
  • तीसरा, प्रभाव उस युवा वर्ग पर पड़  रहा है जो अब अपनी पढाई पूरी करके नौकरी करने जा रहे हैं.  उनके  भविष्य के सुनहरे सपनों  पर बेरोजगारी के बादल  मंडराते  नजर आ रहे हैं. उनका आत्मविश्वास  उनका साथ छोड़  रहा है. वे हाँ  ना की  स्थिति में है . उन्हें नौकरी मिलेगी या  नहीं और यदि मिलेगी भी तो कितने दिनों के  लिए? 

ऐसी स्थिति मैं इस समाज की  इकाई होने के नाते अपनी आवाज सबसे पहले उन कर्मचारियों तक पहुँचाना चाहती हूँ जो इस मंदी  के कारण  अपनी नौकरी खो चुके हैं. आपकी जिस प्रतिभा के कारण  आपको यह नौकरी मिली थी,  वही प्रतिभा आपके लिए दूसरा द्वार खोलेगी. जीवन-पथ सदा सुगम नहीं होता. हताश होकर कोई भी गलत फैसला न करें. अपने आत्मविश्वाश और धैर्य के साथ दूसरी नौकरी के लिए प्रयास  करें.  हो सकता है कुछ देर हो पर मिलेगी अवश्य. 

मेरी प्रार्थना ऐसे कर्मचारियों के  परिवार के सदस्यों से भी है.  आपके पालन-पोषण, दिशा- निर्देश एवं  सहयोग के कारण ही आपके परिवार का यह सदस्य एक अच्छा सुशिक्षित  नागरिक बन पाया.  आप उसके सबसे बड़े संबल हैं. परन्तु कहीं- कहीं परिवार में ऐसी सोंच होती है जो बिना नौकरी के व्यक्ति को अवहेलना एवं  तिरस्कार का पात्र समझती  है.  कृपया अपनी प्रतिक्रिया को एक नयी दिशा दे . यदि आपके परिवार में मंदी के कारण किसी की नौकरी चली गयी   है तो उसे कुंठाग्रस्त  न होने दे. उसे प्रोत्साहित कर उसके आत्मविश्वाश को बनाये रखे.  आपका प्यार एवं  आश्वाशन  उसे अपनी परिस्थितियों  से लड़ने की  शक्ति  देगा.

मेरा विनम्र  अनुरोध  कम्पनी  के  व्यवस्थापकों   से भी है कि वे कम वेतन पाने  वाले कर्मचारियों को जहाँ तक हो सके बेरोजगार न होने दे . अधिक वेतन पाने वाले कर्मचारी अपने वेतन से बुरे समय के लिए कुछ न कुछ बचत कर सकते हैं परन्तु कम वेतन पाने वाले कर्मचारी बहुत कठिनाई से अपना और अपने परिवार का भरण - पोषण कर पाते  हैं. उदाहरण के लिए यदि किसी कर्मचारी का मासिक वेतन दो लाख रुपये है तो कुछ महीनो के लिए उसे पंद्रह हज़ार रुपये कम भी मिले तो शायद बहुत फर्क नहीं पड़ेगा,  परन्तु जो व्यक्ति दस से पंद्रह हज़ार रुपये  मासिक वेतन पा  रहा है, उसकी नौकरी चली जाती है तो यह अत्यंत दुखद:  है. पंद्रह हज़ार मासिक वेतन पाने वाले चार कर्मचारियों को निकालने के  बदले दो लाख वेतन पाने वाले चार कर्मचारियों के वेतन से कुछ दिनों के लिए पंद्रह हज़ार रुपये कम  किया जा सकता है. 

Monday, May 11, 2009

माँ


"मातृ
दिवस" के अवसर पर मेरी प्रकाशित कवितायेँ:

आपकी प्रतिक्रिया में आशान्वित...

- किरण सिन्धु

Monday, May 4, 2009

सजा बिना अपराध की




अगर साँसे दिखाई देती तो एहसास भी दिखते,
वक्त को थाम पाते तो इतिहास भी दिखते।
- किरण सिन्धु

यह तो सभी जानते है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक की अवधि जीवन है, परन्तु मेरे दृष्टिकोण में मनुष्य जीवन को हर क्षण में जीता है और उसके बीत जाने के बाद उसे समझता है. अपने जीवन के प्रारंभ में ही या यों कहें कि अपनी बाल्यावस्था में ही मैंने अपनी माँ को खो दिया था. एक अबोध शिशु के लिए माँ क्या होती है उसे आज तक कोई लेखनी व्यक्त नहीं कर पाई. मुझे अभी भी याद है बाबूजी ने कहा ''माँ अस्पताल गयी है'', दादी ने कहा ''माँ भगवान् के पास गयी है '' और दीदी ने कहा कि माँ तारा बन गयी है. इन सभी बातों का मेरे लिए एक ही अर्थ था कि माँ नहीं है और नहीं है तो फिर कब आएगी? कुछ ही दिनों में आभास हो गया कि ये सारे प्रश्न निरुत्तर थे. उम्र की पगडंडी पर चलते-चलते एक समय ऐसा भी आया जब मैं स्वयं माँ बनी. इश्वर ने मुझे संतान के रूप में तीन अमूल्य रत्न दिए -एक प्यारी सी बेटी और दो बेटे. अपनी भरपूर ममता और सरंक्षण में मैं इन्हें पालने में लग गयी. मेरे बच्चों ने मुझे इस विश्व की सबसे अधिक सौभाग्यशालिनी माँ बना दिया, ऐसा मेरा सोचना था. मैं सदा उपरवाले से यही दुआ माँगती कि हर जन्म में मैं इन्ही बच्चों की माँ बनूँ. लेकिन हाय विधाता! एक दिन इस माँ को फिर से नियति की विडम्बना को झेलना था. मेरा बेटा किसलय सदा के लिए हम तीनो को छोड़ कर चला गया. ऐसा लगता है मेरे शारीर के साथ-साथ मेरी आत्मा का भी एक हिस्सा कट कर अलग हो गया है. मेरे जीवन में उसका नहीं होना एक क्रूर सजा की तरह है जो मेरी सहनशक्ति के बाहर है. एक शिशु तो अपनी माँ के बिना जी गया लेकिन एक माँ अपने शिशु के बिना कैसे जिए? हे इश्वर किसी माँ को ऐसी सजा मत देना! पर ऐसा लगता है जीवन और मृत्यु के इश्वर अलग अलग है, क्यूंकि इश्वर स्वयं जिनके सारथी थे उस अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की मृत्यु भी युवावस्था में ही हुई थी और श्री राम स्वयं इश्वर होते हुए भी अपने पिता की मृत्यु को रोक नहीं सके थे।

Monday, April 27, 2009

गोधूलि किरण


चलते चलते आकर ठहर गयी
अपने ही चौखट पर गोधूलि किरण;
गुमसुम सी मन ही मन में कर रही
घड़ी-घड़ी, पहर-पहर का मूल्याँकन.

भोर की बेला बड़ी सुहानी थी
मैं भी थी कोमल-कोमल शीतल-शीतल;
ओस की बूंदों के संग अठखेलियाँ
थिरकती थी हवा के संग बिन पायल.

दोपहर में जब प्रचंड भास्कर
तपा रहा था सारे विश्व को;
मैं भी बन कर तब अग्निशिखा
बचा रही थी स्वयं के अस्तित्व को.

यह तो सब विधि के हाथ है
किसे कितनी प्रभा और कितना तम्;
कर लिया स्वीकार दोनों अंश को
गोधूलि है प्रकाश-तिमिर का संगम.

- किरण सिन्धु